अंतरराष्ट्रीयदिल्ली

रेल मंत्री का ध्यान सिर्फ वंदे भारत पर गरीब आज भी भूसे की तरह जा रहा रेल में

नई दिल्ली(योगेश भारद्वाज) : भारत के रेल मंत्री और रेलवे के अधिकारियों का पूरा सिस्टम वंदे भारत रेल तक ही सिमट कर रह गया है। इसके अलावा भारत सरकार का पत्र सूचना कार्यालय  सिर्फ वही प्रेस रिलीज बना रहा है। जिसमे सरकार और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित रेल मंत्री का गुणगान हो। इसके इतर रेलवे को अन्य रेलगाड़ियों की दुर्दशा नज़र नही आ रही है। रेल मंत्री को यदि वंदे भारत से थोड़ा समय मिले तो रेलवे की बिहार,बंगाल जाने वाली अन्य लोकल और एक्सप्रेस रेल पर भी नज़र डाल लें कि आज भी गरीब रेल के टॉयलेट में बैठकर सफर कर रहा है। यह बहुत ही दुख की बात है। कि जब अमीरों के लिए लग्जरी रेल बनाई गई है। तो फिर गरीबो की मानी जाने वाली रेल उनकी पहुँच से दूर क्यो?

वंदे भारत की हकीकत….पटरी पर नही है गाड़ी
मध्यप्रदेश के चंद्र शेखर गौर नाम के एक व्यक्ति ने एक RTI दायर की थी. जिसके जवाब में ये जानकारी सामने आई कि साल 2021-22 में वंदे भारत ट्रेनों की औसत स्पीड 84.48 किलोमीटर प्रति घंटा थी जबकि साल 2022-23 में ये स्पीड 81.38  किलोमीटर प्रति घंटा रह गई. कई मीडिया रिपोर्ट्स में रेलवे प्रशासन के अधिकारियों ने भी कबूल किया है कि वंदे भारत ट्रेनों की अधिकतम स्पीड भले 130 या 160  किलोमीटर प्रति घंटा रखी गई हो, लेकिन इन ट्रेनों के रूट में ज्यादातर जगह ट्रेनें इस स्पीड पर नहीं चल पा रही हैं. और इसके कई कारण हैं –

1. कॉशन

कॉशन माने चेतावनी. रेलवे की भाषा में कॉशन का मतलब होता है स्पीड लिमिट. किसी पुराने पुल, तीखे मोड़ या फिर जटिल यार्ड (जहां ढेर सारी पटरियां आपस में मिलती हों) पर गाड़ी को तेज़ चलाने से उसके बेपटरी होने का खतरा रहता है. इसीलिए ट्रैक के ऐसे हिस्सों पर आते ही सारी गाड़ियां अपनी रफ्तार कम करती हैं, चाहे वो माल गाड़ी हों या फिर सेमी हाईस्पीड ट्रेन. ज़ाहिर है, वंदे भारत को भी कॉशन का पालन करना पड़ता है. और उसकी औसत रफ्तार कम हो जाती है. भारत में रेल नेटवर्क पर बहुत दबाव है, तो यहां ढेर सारे कॉशन्स हैं।

2. धीमे टर्नआउट्स

आपने गौर किया होगा, गाड़ी जब किसी स्टेशन पर पहुंचती है, तो वो मुख्य पटरी से हटकर प्लेटफॉर्म वाली पटरी पर आ जाती है. इसके लिए गाड़ी को पॉइंट्स से गुज़रना होता है. पॉइंट माने वो कांटा, जहां से गाड़ी नई पटरी पकड़ती है. इन पॉइंट्स के डिज़ाइन और ज्योमेट्री से तय होता है कि गाड़ी इनपर कितनी रफ्तार से चल पाएगी. एक वक्त भारत में बहुत धीमे पॉइंट्स होते थे. धीरे धीरे इनकी रफ्तार 30 किलोमीटर तक बढ़ाई जा रही है. लेकिन इस काम में अभी बहुत वक्त लगेगा. नतीजा, जब जब हम वंदे भारत (या किसी दूसरी ट्रेन) को किसी स्टेशन पर रोकने का फैसला लेते हैं, उसे धीमे पॉइंट्स के चलते नाहक अपनी रफ्तार कम करनी पड़ती है. दुनिया के उन्नत नेटवर्क्स पर ऐसे पॉइंट्स लगे होते हैं, जहां गाड़ी 50 से 70 किलोमीटर की रफ्तार से भी पटरी बदल लेती है. ऐसे में इन गाड़ियों का समय बचता है.

3. पटरियों के किनारे फेंसिंग

आपने ऐसी ढेर सारी खबरें पढ़ी होंगी, जिनमें वंदे भारत की नाक टूटने का ज़िक्र होता है. अक्सर ये तब होता है, जब कोई जानवर पटरी पर आ जाता है. 160 किलोमीटर प्रति घंटा या उससे तेज़ जाने के लिए ज़रूरी है कि ट्रैक के इर्द गिर्द फेंसिंग हो, जो जानवरों को रोके. जब तक ये नहीं होगा, तब तक गाड़ियों की रफ्तार बढ़ाने में खतरा बना रहेगा.

4. सिग्नल और कवच

कोई भी ट्रेन लोको पायलट या ड्राइवर की मर्ज़ी से नहीं चलती है. गाड़ी के चलने न चलने का फैसला लेता है गार्ड, जिसे अब ट्रेन मैनेजर कहा जाता है. ट्रेन मैनेजर के बाद ड्राइवर सिर्फ एक की सुनता है – सामने नज़र आ रहे सिग्नल की. ड्राइवर को लाइन क्लीयर मिलेगी, तो वो गाड़ी चलाता रहेगा, नहीं मिलेगी, तो वो गाड़ी धीमी कर देगा, या रोक देगा. जैसे जैसे संचालन की रफ्तार बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे ड्राइवर के लिए सिग्नल पर ध्यान बनाए रखना मुश्किल होता जाता है, खासकर तब, जब विज़िबिलिटी कम होती है, मिसाल के लिए कोहरे में. इसीलिए तेज़ रफ्तार रूट्स पर ये इंतज़ाम किया जाता है कि रेल गाड़ी, पटरियों से बात कर सके. जी हां. सिग्नल वाला खंभा आने से पहले ड्राइवर कैब में मालूम हो जाता है कि अगला सिग्नल हरा है, या लाल. तो ड्राइवर निश्चिंत गाड़ी दौड़ाता रहता है. जब ड्राइवर सिग्नल पर अमल नहीं करता, तो ट्रेन में अपने आप ब्रेक लग जाते हैं. ये तकनीक न सिर्फ गाड़ियों को रफ्तार देती है, बल्कि सुरक्षित भी बनाती है। दिक्कत ये है, कि ये तकनीक भारत में फिलहाल सिर्फ एक लंबे रूट पर काम कर रही है – दिल्ली-आगरा. यहां लगा है TPWS – ट्रेन प्रोटेक्शन एंड वॉर्निंग सिस्टम. इसीलिए इस रूट पर गतिमान और वंदे भारत 160 की रफ्तार पर चलती हैं. और भोपाल शताब्दी 150 की।

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